घोघड़, चम्बा 10 अप्रैल : हिमाचल प्रदेश में नगर एवं ग्राम योजना अधिनियम, 1977 (TCP Act) का उद्देश्य शहरीकरण और विकास को सुनियोजित करना है। परंतु जब इस अधिनियम को राज्य के जनजातीय क्षेत्रों—जैसे भरमौर, पांगी, लाहौल-स्पीति, और किन्नौर—में लागू किया जाता है, तो यह विकास का साधन कम और असमंजस का कारण अधिक बन जाता है। ऐसा मानना है स्थानीय समाज सेवी एवं पूर्व पंचायत समिति सदस्य भरमौर गुलशन नंदा का।
गुलशन नंदा बताते हैं कि जनजातीय समाज की जीवनशैली मुख्यतः पारंपरिक है—पत्थर, लकड़ी और मिट्टी से बने घर, सामुदायिक भवन, देवस्थल, गोठ और गोशालाएं इस जीवनशैली का हिस्सा हैं। TCP एक्ट की धारा 14 के अंतर्गत नक्शा पास करवाना और योजनाबद्ध विकास का पालन आवश्यक हो जाता है। इसका सीधा असर इन पारंपरिक निर्माणों पर पड़ता है, जिससे स्थानीयों की सांस्कृतिक पहचान और निर्माण स्वतंत्रता बाधित होती है।
जनजातीय क्षेत्र पहले से ही हिमाचल प्रदेश भू-स्वामित्व और भूमि सुधार अधिनियम, 1972 (धारा 118) के अंतर्गत संरक्षित हैं, जो बाहरी लोगों को भूमि खरीदने से रोकता है। TCP एक्ट की धारा 16 से 20 तक भूमि उपयोग में परिवर्तन (Land Use Change) और विकास के लिए कई प्रकार की अनुमति आवश्यक हो जाती है। इससे आम नागरिकों के लिए नियमों का पालन करना मुश्किल हो जाता है।
उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 244 और अनुसूचित क्षेत्र हिमाचल प्रदेश के किन्नौर, लाहौल-स्पीति और भरमौर (चंबा) को संविधान के अनुसार अनुसूचित क्षेत्र माना गया है। यहां पर भूमि हस्तांतरण पर कड़े प्रतिबंध हैं । पांचवीं अनुसूची एवं पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 – PESA Act, 1996 के तहत जनजातीय क्षेत्रों में इसकी कुछ धाराओं को विशेष रूप से आरक्षित किया गया है।
TCP नियमों के अंतर्गत नक्शा स्वीकृति, ज़ोनिंग, FAR, और अन्य तकनीकी प्रक्रियाएं लागू होती हैं। ये नियम TCP Rules 2014 के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें समझना और लागू करना एक साधारण ग्रामीण के लिए अत्यंत जटिल है। नतीजतन, स्थानीय लोग दलालों और ठेकेदारों पर निर्भर हो जाते हैं।
TCP Act की धारा 15 के अनुसार कोई भी निर्माण TCP विभाग की अनुमति के बिना नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि स्थानीय पंचायतें और ग्रामीण स्वयं कोई विकासात्मक निर्णय नहीं ले सकते। इससे न केवल विकास की गति धीमी होती है, बल्कि निर्णय की शक्ति भी स्थानीय हाथों से निकल जाती है।
धारा 21 के अनुसार निजी बिल्डर और डेवलपर योजना क्षेत्र में बड़ी परियोजनाएं ला सकते हैं। ऐसे में बाहरी पूंजी को बढ़ावा मिलता है जबकि जनजातीय क्षेत्र के मूल निवासी संसाधन, जानकारी और कानूनी जानकारी के अभाव में पिछड़ जाते हैं।
जनजातीय क्षेत्र मुख्यतः वन भूमि से घिरे होते हैं। ऐसे में वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत स्वीकृति और अनुमतियों का जाल और भी जटिल हो जाता है। TCP एक्ट इन सभी प्रक्रियाओं से टकराव पैदा करता है।
ऐसे में दो प्रकार के नियम कानून कैसे लागू होंगे प्रशासन ने इस पर कोई जानकारी लोगों को नहीं दी है।
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जनजातीय क्षेत्रों के लिए विशेष उपविधियां बनाई जाएं।
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TCP एक्ट में स्थानीय पंचायतों को विशेष अधिकार दिए जाएं।
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सभी योजनाओं में ग्राम सभा की सहमति अनिवार्य हो।
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TCP नियमों को स्थानीय बोलियों और पारंपरिक संदर्भों में सरल बनाया जाए।
हिमाचल प्रदेश में विकास आवश्यक है, परंतु यह विकास तब तक संपूर्ण नहीं कहा जा सकता जब तक वह स्थानीय संस्कृति, अधिकारों और जनभावनाओं के अनुरूप न हो। TCP एक्ट को जनजातीय क्षेत्रों में लागू करने से पहले इन क्षेत्रों की विशेषता, जीवनशैली और अधिकारों को ध्यान में रखना अनिवार्य है।
गौरतलब है कि टीसीपी के अतंर्गत भरमौर में विशेष क्षेत्र प्राधिकरण लागू करने के लिए डवेलपमेंट प्लान मसौदा तैयार किया गया है जिसे 11 अप्रैल 2025 तक भरमौर के हितधारकों द्वारा आपत्ति व सुझावों हेतु उपमंडलाधिकारी भरमौर के कार्यलय में रखा गया है। कल 11 अप्रैल तक दी गई आपत्तियां व सुझावों को सरकार के पास भेज दिया जाएगा जिसके बाद सरकार इसमें आवश्यक संशोधन करके लागू कर दिया जाएगा।
लोगों का कहना है कि प्रशासन ने इस ड्राफ्ट डवेलपमेंट प्लान के बारे में एक किताब कार्यालय में रखी है जिसे पढ़ने व समझने के लिए विशेषज्ञों की आवश्यकता है जबकि प्रशासन की ओर से इस ड्राफ्ट डवेलपमेंट प्लान को समझाने के लिए कोई शिविर तक आयोजित नहीं किया गया व न ही इसे किसी इन्टरनेट मंच पर उपलब्ध करवाया गया।
अब देखना यह है कि कल अंतिम दिन कितने लोग इस ड्राफ्ट डवेलपमेंट प्लान के मसौदे पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करवाते हैं।